सिहरन
शाम के धुंधलके में जब,
घर से बाहर निकलता हूँ ;
देखता हूँ सड़क किनारे,
चीथड़ों में सिमटी हुई साँसें ;
माँ के आँचल से झाँकतीं,
वो खामोश ऑंखें,
ताकतीं हैं मेरी ओर ;
मौन हैं पर,
चुभो देतीं हैं हज़ारों नश्तर
उन सवालों के,
जो साथ आये थे लिपटे हुए उसके,
माँ के पेट से ही ;
रोंगटे खड़े होने लगते हैं मेरे, और
सिहर के जब फेर लेता हूँ,
अपनी आँखें सड़क के दूसरी ओर,
नज़र आता है जीवन .....
अपने पिता की उंगली थामे हुए,
वो नन्हा फ़रिश्ता ;
आइसक्रीम की चुस्कियां लेता हुआ,
कितना सुकून देता है मन को ;
अपने मन को समझाता हूँ,
जीवन यही है, सच यही है ;
पीछे जो देखा वो,
है उसकी करनी का फल ;
और ये सब सोच कर बन जाता हूँ अनजान,
ये जानते हुए भी कि
मेरी पीठ पर अब भी चुभ रहीं हैं,
उस मासूम की प्यासी आँखें ;
और, भूल जाता हूँ कि
रोंगटे अभी भी खड़े हैं हैं मेरे ......
- डा. शिव शर्मा
I really appreciate your professional approach. These are pieces of very useful information that will be of great use for me in future.
ReplyDeleteHey keep posting such good and meaningful articles.
ReplyDelete